dossierNº 73

सीखने का त्योहार: शिक्षा में ख़ुशी और समानता ला रहा है पीपुल्स साइंस मूवमेंट, कर्नाटक

कर्नाटक में पीपुल्स साइंस मूवमेंट शिक्षा क्षेत्र में प्रयोग कर रहा है और बच्चों में वैज्ञानिक चिंतन विकसित कर रहा है। नेबरहुड स्कूलों और जॉय ऑफ लर्निंग फेस्टिवल आदि के माध्यम से, भारत ज्ञान विज्ञान समिति कर्नाटक आलोचनात्मक सोच को आगे बढ़ाने और हमारे समाज में जड़ें-जमाकर बैठी गैर-बराबरियों से निपटने के लिए रचनात्मक, समावेशी और व्यावहारिक शिक्षण पद्धतियों का इस्तेमाल करता है। पीपुल्स साइंस मूवमेंट, पूरी ताकत से पूंजी का सामना करने वाले अन्य वर्ग-आधारित संगठनों से अलग है, क्योंकि यह पूंजीवाद की विफलताओं से बने सामाजिक स्पेस में काम करता है।
 
इस डोसियर में शामिल कोलाज सिद्दपुरा में 2023 में आयोजित जॉय ऑफ लर्निंग फेस्टिवल के दौरान सतरूपा चक्रवर्ती द्वारा ली गई तस्वीरों और 2022 समग्र शिक्षण कर्नाटक (प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा विभाग, कर्नाटक सरकार) द्वारा प्रकाशित जॉय ऑफ लर्निंग फेस्टिवल हैंडबुक (कलिका हब्बा कैपिडी) में शामिल तस्वीरों के कट-आउट जोड़ कर ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की आर्ट टीम ने तैयार किए हैं।
इस डोसियर में शामिल कोलाज सिद्दपुरा में 2023 में आयोजित जॉय ऑफ लर्निंग फेस्टिवल के दौरान सतरूपा चक्रवर्ती द्वारा ली गई तस्वीरों और 2022 समग्र शिक्षण कर्नाटक (प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा विभाग, कर्नाटक सरकार) द्वारा प्रकाशित जॉय ऑफ लर्निंग फेस्टिवल हैंडबुक (कलिका हब्बा कैपिडी) में शामिल तस्वीरों के कट-आउट जोड़ कर ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की आर्ट टीम ने तैयार किए हैं।

सिद्दपुरा में जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल के उद्घाटन के लिए सिद्दपुरा और आसपास के गाँवों के विभिन्न स्कूलों के बच्चे रैली निकाल रहे हैं।

भारत में पीपुल्स साइंस मूवमेंट अपनी अवधारणा, व्यापकता और संभावना में दुनिया के बाक़ी हिस्सों से कुछ समानताएँ रखता है। इस आंदोलन ने एक युवा स्वतंत्र राष्ट्र में विज्ञान को लोकप्रिय बनाना शुरू किया, जिसकी अधिकतर आबादी (87.8%) निरक्षर थी, आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं से परिचित होना तो दूर की बात है।1 इसने विज्ञान की एक सही समझ को अपनाते हुए अपने लिए एक जटिल भूमिका तैयार की, जिसमें प्राकृतिक और सामाजिक दोनों तरह की घटनाएँ और उनके बीच का आपसी संवाद भी शामिल है। 1960 के दशक में अपनी स्थापना के बाद से पीपुल्स साइंस मूवमेंट ने भारतीय लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को केंद्रित करते हुए भारतीय समाज में ज्ञान के उत्पादन और इसके प्रसार तथा एकीकरण को लोकतांत्रिक बनाने के लिए काम किया है। यह आंदोलन एक ऐसे समाज के निर्माण में वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुप्रयोग को आवश्यक मानता है, जो असमानताओं पर सवाल उठाता है तथा उसके स्वरूप को समझता है और अंततः दमनकारी पदानुक्रम को तोड़ने का रास्ता चुनता है। एक चेतना जो धार्मिक हठधर्मिता में क़ैद है, जो परंपरा और अंधविश्वास को सहज रूप से स्वीकार करती है, और जो प्रकृति तथा समाज की पड़ताल और विश्लेषण करने में असमर्थ है, उसके पास एक समान सामाजिक दुनिया के निर्माण के लिए आवश्यक वैज्ञानिक उपकरण नहीं हैं।

यह दस्तावेज़ कर्नाटक में स्कूली बच्चों के साथ आंदोलन के काम से संबंधित पेडागॉजी (शिक्षाशास्त्र) और दर्शन पर केंद्रित है। इसे पीपुल्स साइंस मूवमेंट के शिक्षकों और कार्यकर्ताओं के साक्षात्कार तथा कर्नाटक में आयोजित जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल्स-2023 (जिसे कालिकाहब्बा भी कहा जाता है), में ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की भागीदारी के आधार पर तैयार किया गया है। कर्नाटक दक्षिण भारत स्थित एक राज्य है, जिसकी आबादी 6.90 करोड़ है।

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पीपुल्स साइंस मूवमेंट की उत्पत्ति

अपने प्रारंभिक वर्षों में, पीपुल्स साइंस मूवमेंट का मुख्य लक्ष्य विज्ञान को लोकप्रिय बनाना, जटिल मुद्दों को आसान और रोज़मर्रा की भाषा में समझाना और अंधविश्वासों का मुक़ाबला करना था, जिसकी वजह से आम लोग समझते थे कि बीमारी, मृत्यु और आपदा जादू टोने के कारण आती है।2 इस अवधि में आंदोलन मुख्य रूप से कई बिखरे हुए संगठनों से मिलकर खड़ा हुआ था, उनमें से कई केरल में केंद्रित थे। उनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण केरल शास्त्र साहित्य परिषद (‘केरल का विज्ञान लेखक मंच’ या केएसएसपी) का औपचारिक गठन 1967 में किया गया था। इस आंदोलन में शामिल कई प्रमुख व्यक्ति सोवियत संघ से अध्ययन करने के बाद भारत आए और वे सोवियत समाज की प्रगति से प्रभावित थे। उदाहरण के लिए एम. पी. परमेश्वरन ने मॉस्को पावर इंस्टीट्यूट (1965) में परमाणु इंजीनियरिंग का अध्ययन किया और अपने देश में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए उत्सुक होकर 1966 में बॉम्बे लौट आए और फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन लैंग्वेजेज़ साइंस एसोसिएशन की स्थापना की।

पीपुल्स साइंस मूवमेंट की जड़ें भारत की स्वतंत्रता के लिए होने वाले राष्ट्रीय आंदोलन में निहित है, जिसका विज्ञान के प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से साम्राज्यवाद-विरोधी था। शोषण और लाभ के साधन के रूप में विज्ञान के उपनिवेशवादी उपयोग के विपरीत, उस युग के वैज्ञानिकों ने विज्ञान को उत्पीड़न से मुक्ति के मार्ग और कठिन परिश्रम के मूल तत्त्व के रूप में देखा और उसे आपस में समायोजित करने की कोशिश की, जैसा कि अमित सेन गुप्ता ने लिखा, ‘कि इस जागरूकता के साथ कि विज्ञान की मुक्ति क्षमता केवल उन लोगों के बीच ही पनप सकती है जो वास्तव में स्वतंत्र हैं।’3 नव स्वतंत्र राष्ट्र ने विज्ञान को जो महत्त्व दिया वह भारतीय संविधान (अनुच्छेद 51ए) में झलकता है, जिसमें कहा गया है कि ‘वैज्ञानिक स्वभाव, मानवतावाद और तर्क की भावना विकसित करना और सुधार…. यह भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा।’4

जब स्वतंत्र भारत ने विकास की एक स्वायत्त राह पर चलने और साम्राज्यवाद के घेरे से बाहर निकलने का फ़ैसला किया, तो वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, डॉक्टरों और ऐसे अन्य आधुनिक वैज्ञानिक पेशेवरों को तैयार करना अनिवार्य हो गया जो विज्ञान और तकनीक के विकास के लिए एक मज़बूत आधार बना सकें। इस प्रयास को बड़े पैमाने पर देश के पिछड़े ग्रामीण समाज का सामना करना पड़ा, जो कई प्रतिगामी प्रथाओं से घिरा हुआ था। पीपुल्स साइंस मूवमेंट शिक्षकों और इंजीनियरों से लेकर डॉक्टरों, शोधकर्ताओं तथा वैज्ञानिकों जैसे बुद्धिजीवियों को आगे बढ़ाकर इस संबंध में महत्त्वपूर्ण प्रगति करने में सक्षम था, जो स्वतंत्रता के बाद की शिक्षा जगत की जीवंत संस्कृति की देन थे, जो राष्ट्रीय विकास में गहरी रुचि रखते थे। उनमें से कई छात्र आंदोलन का हिस्सा रहे या उस परिवेश के सामाजिक-राजनीतिक विमर्श से प्रभावित थे।

भारत की आज़ादी के बाद के वर्षों में राज्य ने दूरदर्शी, गंभीर रूप से सोचने वाले बुद्धिजीवियों का एक समूह बनाने के लिए गुणवत्तापूर्ण शैक्षणिक संस्थान विकसित किए, जो न केवल वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी तथा औद्योगिक विकास में देश को स्वायत्त बनाने के लिए आधार तैयार करने वाले थे, बल्कि सामंतवाद की गहरी जड़ें जमा चुकी बेड़ियों को तोड़ने के लिए उत्प्रेरक भी बनने वाले थे। बहरहाल, सच्चाई यह है कि ये संस्थाएँ अधिकांश आबादी के पहुँच में नहीं थीं, और इसका एक मुख्य कारण यह था कि सार्वजनिक संसाधनों में से उन्हें जितनी राशि आवंटित जाती थी वह बहुत कम थी। यहाँ तक कि साक्षरता की गति भी धीमी थी – और अभी भी यही स्थिति है-, लाखों बच्चे स्कूलों में क़दम रखे बिना ही बड़े हो रहे हैं या बहुत जल्दी स्कूल से निकल जा रहे हैं।5

इस संदर्भ में केरल में वामपंथी आंदोलन द्वारा समर्थित केएसएसपी ने अभिनव विज्ञान साक्षरता कार्यक्रम विकसित किया। 1970 के दशक में कलाजथास नामक सांस्कृतिक मंडलों का गठन ऐसा ही एक कार्यक्रम था, जिसके माध्यम से कार्यकर्ताओं ने कला, संगीत, नृत्य और रंगमंच के ज़रिये विज्ञान को लोगों, ख़ासकर गाँवों तक पहुँचाया। इसने देश भर के राज्यों में इसी तरह के अभियानों की शुरुआत की, जिससे कर्नाटक सहित देश के विभिन्न प्रदेशों में भारत ज्ञान विज्ञान समिति (बीजीवीएस या ‘इंडियन साइंस नॉलेज एसोसिएशन’) के गठन की प्रेरणा मिली। केरल में केएसएसपी के काम से प्रेरित होकर, बीजीवीएस कर्नाटक में पीपुल्स साइंस मूवमेंट को चलाने वाली प्राथमिक शक्ति और देश भर के कई राज्यों में विज्ञान को बढ़ावा देने वाला एक प्रमुख मंच बन गया।

1984 में, भोपाल (मध्य प्रदेश) में यूनियन कार्बाइड कारख़ाने में गैस रिसाव और विस्फोट के बाद भारत भर में कई विज्ञान साक्षरता समूहों का गठन हुआ, जिनमें से कई ने रिसाव और विस्फोट के आपराधिक पहलू को समझाने और पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए काम किया। इनमें से कई समूहों ने एक साथ काम करना शुरू किया, जिसकी परिणति भारत जन विज्ञान जत्था या इंडियन पीपुल्स साइंस एसोसिएशन के गठन के रूप में हुई, जिसने देश भर में विज्ञान के बारे में लोकप्रिय साक्षरता बढ़ाने की माँग की। इस प्रक्रिया के बाद 1988 में छब्बीस विज्ञान संगठनों का एक राष्ट्रीय नेटवर्क तैयार हुआ, जिसे ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क (एआईपीएसएन) कहा गया।

जैसे ही एआईपीएसएन ने देश में अपनी पहचान बनाई, कई सरकारी एजेंसियों ने राष्ट्रीय साक्षरता मिशन में सहायता के लिए उससे संपर्क किया, जिसका उद्देश्य ग्रामीण भारत में वयस्क साक्षरता बढ़ाना था। एआईपीएसएन ने इसे अपने विज्ञान साक्षरता प्रयासों को राष्ट्रव्यापी बनाने के मिशन के अवसर के रूप में देखा। जल्द ही, प्रत्येक राज्य में बीजीवीएस इकाइयों ने अपनी स्वतंत्रता बनाए रखते हुए मिशन में सहायता के लिए एआईपीएसएन के माध्यम से एक नेटवर्क बनाया।

इन अखिल भारतीय सरकारी कार्यक्रमों के माध्यम से एआईपीएसएन उत्तर भारत के राज्यों में अपनी उपस्थिति दर्ज करने में कामयाब रहा, जहाँ प्रगतिशील आंदोलन ऐतिहासिक रूप से कभी भी मज़बूत नहीं था। इस वयस्क साक्षरता आंदोलन के दौरान, एआईपीएसएन बीजीवीएस के माध्यम से भारत भर के विभिन्न राज्यों में 60,000 गाँवों तक पहुँचने में सफल हो सका – एक अभूतपूर्व अभियान, जिसमें हज़ारों कार्यकर्ताओं, शिक्षकों और छात्रों ने ग्रामीण भारत के लोगों को पढ़ाने के लिए देश भर में यात्रा की। हालाँकि बच्चों के बीच विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए पीपुल्स साइंस मूवमेंट कई प्रकार की गतिविधियों करता रहा है, जिसका एक लंबा इतिहास है, लेकिन बीजीवीएस के माध्यम से साक्षरता आंदोलन में हज़ारों स्कूली शिक्षकों को शामिल करने से ये प्रथाएँ बड़े पैमाने पर कक्षाओं तक पहुँच गईं और विज्ञान आंदोलन के लोकतंत्रीकरण को बढ़ावा मिला।


The owner of a coconut oil factory explains the production process to students during the 2023 Joy of Learning Festival in Siddapura.

नारियल तेल की फ़ैक्टरी का मालिक जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल में प्रतिभागी बच्चों को तेल की उत्पादन प्रक्रिया के बारे में बताते हुए

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नवउदारवाद और विज्ञान आंदोलन

बीजीवीएस और एआईपीएसएन की शुरुआत 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक के आरंभ की अवधि में हुई, यह वो समय था जब भारत का शासक वर्ग देश पर नवउदारवादी ढाँचा थोप रहा था। जैसे ही एआईपीएसएन कार्यकर्ताओं ने साक्षरता को बढ़ावा देने और वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर अंधविश्वास से निपटने के लिए पूरे देश में आंदोलन चलाया, धुर दक्षिणपंथी ताक़तों ने अयोध्या (उत्तर प्रदेश) में सोलहवीं शताब्दी की एक मस्जिद को ध्वस्त करने हेतु एक अभियान चलाने के लिए पूरे भारत में यात्रा की, जिससे देश में सामाजिक विभाजन पैदा हो गया। तब से, एआईपीएसएन ने एक ऐसे समाज में हस्तक्षेप करने के लिए काम किया है, जो धार्मिक कट्टरता और रूढ़िवाद की बढ़ती वैधता के साथ-साथ नवउदारवादी ताक़तों द्वारा ज्ञान और शिक्षा प्रणालियों को नष्ट किए जाने के कारण तेज़ी से तबाह हो गया है।

इन नवउदारवादी ताक़तों ने भारत की शिक्षा प्रणाली की दीर्घकालिक दिशा बदल दी है।6 जबकि शिक्षा के लिए होने वाली फ़ंडिंग में लगातार कमी की जाती रही जिससे शिक्षा आम लोगों की पहुँच से बाहर हो गई, शिक्षा के लिए यह राष्ट्रीय दृष्टिकोण एक सर्वांगीण शिक्षा, जिससे समाज में आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा मिलता, की क़ीमत पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पूँजी को लाभ पहुँचाने वाले कौशल से लैस एक सस्ते कार्यबल की आपूर्ति करने से ज़्यादा कुछ नहीं कर पाया। उद्योगों के लिए आवश्यक तात्कालिक तकनीकी कौशल से परे कुछ भी सीखना न केवल सार्वजनिक संसाधनों की गंभीर बर्बादी के रूप में देखा जाता है; इसे मौजूदा अधिनायकवादी सामाजिक संरचनाओं और राज्य की गतिविधियों के लिए भी ख़तरा माना जाता है। इस परीक्षा और लाभोन्मुख प्रणाली में, जिनके पास संसाधन नहीं है और जो लोग अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सकते हैं, और जो लोग डिग्री हासिल कर पाते हैं, वे इस तथ्य से सहमत हैं कि उन्हें सस्ते, प्रचुर और दब्बू क़िस्म के श्रम बल में डाल दिया जा रहा है। नवउदारवाद के तहत सरकारी फंडिंग में कटौती ने लाखों बच्चों को प्राथमिक शिक्षा से वंचित कर दिया है, जबकि लाखों बच्चों के परिवार निजी स्कूल का भुगतान करने के लिए स्थायी क़र्ज़ में डूब गए हैं। ये निजी स्कूल फ़ीस बढ़ाकर और शिक्षकों को न्यूनतम वेतन देकर लाभ कमाते हैं, जबकि शिक्षा के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान करने में विफल रहते हैं।7

शिक्षा के प्रति नवउदारवादी दृष्टिकोण विज्ञान को लेकर संविधान द्वारा सौंपे गए दायित्व को कम करता है तथा अतार्किक, अक्सर घृणित और हिंसक विचारों तथा कार्यों के अंध पालन को प्रोत्साहित करता है, जिसमें प्राचीन इतिहास का विकृत लेकिन गौरवपूर्ण दृष्टिकोण और विज्ञान के सटीक इतिहास तथा प्रणालियों की उपेक्षा शामिल है। उदाहरण के लिए गुजरात राज्य के स्कूली पाठ्यपुस्तकों का दावा है कि प्राचीन भारत में आनुवंशिकी इंजीनियरिंग कौशल विद्यमान था क्योंकि कुंती (चौथी शताब्दी के महाकाव्य महाभारत में पांडवों की माँ) के बच्चे उनके गर्भ से बाहर पैदा हुए थे। इस बीच, 2021 में इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) शहर के उच्च न्यायालय ने फ़ैसला सुनाया कि गायें ऑक्सीजन छोड़ती हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में दावा किया कि प्राचीन भारत प्लास्टिक सर्जरी में उत्कृष्ट था, जैसा कि भगवान शिव ने प्रमाणित किया था, जिन्होंने अपने पुत्र गणेश के सिर की जगह हाथी का सिर लगा दिया था। ऐसे तर्क से पूँजी को दब्बू क़िस्म का श्रम प्राप्त होता है जबकि समाज को एक ऐसी आबादी मिलती है जो सभी ग़लत चीजों में अपने दुखों का समाधान ढूँढती है।

यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले ग़ैर सरकारी संगठनों के विपरीत, पीपुल्स साइंस मूवमेंट नवउदारवादी फ़ंडिंग से अपनी दूरी बनाए रखता है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक में बीजीवीएस विश्व बैंक और यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों जैसे किसी भी कॉर्पोरेट और संस्थागत फ़ंडिंग से फ़ंड लेने से सख़्ती से बचता है। हालाँकि यह सरकार के साथ काम करता है, मगर सरकारी धन नहीं लेता है और पूरी तरह से लोगों के योगदान पर निर्भर करता है।

बीजीवीएस की मासिक पत्रिका, टीचर, के 2021 में छपे एक अंक का कवर पेज, जिसमें संस्था द्वारा कोविड-19 महामारी के दौरान चलाए गए नेबरहुड स्कूल का दृश्य दिखाया गया है

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बीजीवीएस के नेबरहुड स्कूल

नवउदारवाद के हमले, सार्वजनिक शिक्षा की बढ़ती बदहाली और 1990 के दशक की शुरुआत में निजी और सार्वजनिक स्कूलों के बीच बढ़ते सामाजिक-आर्थिक विभाजन के इस परिदृश्य में बीजीवीएस का विस्तार हुआ। सक्रिय शिक्षकों की ताक़त के माध्यम से बीजीवीएस ने विभिन्न भारतीय राज्यों के स्कूलों में प्रचलित शैक्षणिक तरीक़ों को चुनौती देने, बदलने और रूपांतरित करने के हर अवसर का उपयोग किया है। बीजीवीएस शिक्षा में अभिजात वर्ग के पूर्वाग्रह, जो बच्चों को सीखने से अलग करता है, अवैज्ञानिक शिक्षण विधियाँ जो बच्चों की जिज्ञासा को ख़त्म करती हैं, और युवा मन पर पड़ने वाले जाति तथा धार्मिक हठधर्मिता के हानिकारक प्रभाव का मुक़ाबला करने के लिए शिक्षण की एक रचनात्मक पद्धति को विकसित करने और लागू करने में सक्रिय रूप से शामिल रहा है।

जब कोविड-19 महामारी आई और नवउदारवादी संस्थानों ने ऑनलाइन स्कूली शिक्षा पर ज़ोर दिया, जबकि अधिकतर बच्चों के पास इंटरनेट या कंप्यूटर की कोई सुविधा नहीं थी (जबकि जिनके पास ऑनलाइन शिक्षा की सुविधा थी, उन्होंने कुछ भी सार्थक नहीं सीखा), कर्नाटक में बीजीवीएस ने नेबरहुड स्कूलों (वातरशालाओं) की शुरुआत की। सरकारी स्कूल के शिक्षकों ने महामारी से संबंधित स्वास्थ्य सलाह के अनुसार इन स्कूलों को सामुदायिक हॉल और सार्वजनिक स्थानों (जैसे मंदिरों, मस्जिदों या चर्चों के प्रांगण) में चलाने के लिए स्वेच्छा से काम किया। प्रारंभिक रूप में ऐसे साठ स्कूल, जो ज़्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में थे, एक तरह से सरकारी रवैये की पहली संगठित प्रतिक्रिया के रूप में सामने आए, कम से कम भारत में। उन्होंने अप्रैल 2020 में प्रारंभिक लॉकडाउन लगाए जाने के बाद शिक्षा में आए व्यवधान को दूर करने का प्रयास किया। बच्चों के माता-पिता से उन्हें समर्थन मिला और मीडिया का ध्यान भी इस ओर गया। इसकी वजह से सरकार नेबरहुड स्कूलों के लिए सहायता की घोषणा करने के लिए मजबूर हुई। वर्ष के अंत तक, पूरे कर्नाटक में 35,000 से अधिक ऐसे स्कूल थे।

नेबरहुड स्कूलों के सफल अनुभव से बीजीवीएस सरकारी शिक्षा विभाग को बाज़ार-संचालित ‘सीखने के परिणामों’ पर सरकार के आग्रह को, कुछ हद तक, कम करने के लिए मनाने में सक्षम हुआ। नेबरहुड स्कूलों के शिक्षाशास्त्र ने बड़ी संख्या में स्वयंसेवी शिक्षकों को इसमें शामिल होने के लिए प्रेरित किया, जिन्होंने फिर शिक्षा विभाग को अपने महत्त्व को समझाने में मदद की। इसके परिणामस्वरूप न केवल नेबरहुड स्कूलों के लिए बल्कि जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल के लिए भी अतिरिक्त सरकारी सहायता मिली, क्योंकि 2022 के अंत तक महामारी का सबसे बुरा दौर समाप्त हो चुका था।

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जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल

सीखने के लिए आनंद आवश्यक है। विज्ञान सिखाने का यह दृष्टिकोण त्योहारों की पद्धति के हिस्से के रूप में छात्रों और शिक्षकों के गायन तथा नृत्य द्वारा अभिव्यक्ति पाता है। त्योहारों की कार्यप्रणाली के दो मुख्य घटक हैं: पहला, सीखने के लिए चार कोने जिनमें त्योहारों की गतिविधियों को विभाजित किया जाता है, और दूसरा, एक ‘मेहमान-मेज़बान’ कार्यक्रम जिसके माध्यम से अन्य गाँवों के बच्चों की स्थानीय गाँव के छात्रों के साथ जोड़ी बनाई जाती, जो त्योहारों की पूरी अवधि के दौरान जोड़ी की तरह रहते और काम करते हैं, जोड़ी बनाते समय जाति, भाषा और वर्ग जैसे भेदभाव को मिटा दिया जाता है। हालाँकि मेहमान-मेज़बान कार्यक्रम अभी तक हर त्योहार में लागू नहीं किया जा सका है (और वास्तव में बहुत सीमित पैमान पर ऐसा किया जा सका है), यह त्योहारों की कार्यप्रणाली और भारतीय समाज के भीतर सामाजिक-आर्थिक विभाजन को तोड़ने के उनके लक्ष्य की कुंजी है, आने वाले वर्षों में इसे बड़े पैमाने पर करने का इरादा है।

जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल पड़ोस के स्कूलों द्वारा विकसित पद्धति का विस्तार करते हैं और उन 620 त्योहारों पर आधारित हैं जो बीजीवीएस ने महामारी से पहले 2019 में आयोजित किए थे। महामारी से ज्ञान में पैदा अंतर के नवउदारवादी समाधानों के विपरीत, शिक्षकों द्वारा स्वयं चर्चा, डिज़ाइन और कार्यान्वयन के माध्यम से बच्चों के त्योहारों का आयोजन किया जाता है, जिसमें माता-पिता, ग्राम पंचायतों के निर्वाचित सदस्यों, स्कूल विकास निगरानी समितियाँ, और अन्य की भागीदारी होती है। 2022 और 2023 के जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल्स में 35,000 से अधिक शिक्षकों और 10 लाख बच्चों ने भाग लिया, जो 4,100 से अधिक क्लस्टरों में आयोजित किए गए थे (प्रत्येक क्लस्टर कक्षा 8-12 के स्कूलों का एक समूह है, जो किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र के भीतर स्थित है)।

बच्चे स्वयं विषय सामग्री को छूते हैं, महसूस करते हैं, प्रयोग करते हैं और अन्वेषण करते हैं, जिससे शिक्षक को गतिविधि में अंतर्निहित यांत्रिकी और वैज्ञानिक सिद्धांतों को समझाने का अवसर मिलता है। यह दृष्टिकोण बच्चों को सामूहिक टीम में काम करते हुए प्रकृति और समाज में प्रयोग करने, निरीक्षण करने, समझने, विश्लेषण करने और सार्थक पैटर्न खोजने के लिए प्रोत्साहित करता है। इस तरह की गतिविधियाँ अधिक पारंपरिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ती हैं जो व्याख्यान और पाठ्यपुस्तकों तक सीमित है, जिससे न केवल बच्चे बल्कि छोटे गाँवों के उनके माता-पिता भी आकर्षित होते हैं जहाँ ये त्योहार आयोजित होते हैं।

कर्नाटक के उडुपी ज़िले में सहायक शिक्षक रवीन्द्र कोडी ने शिक्षण के इस स्वरूप पर कहा:

सीखना कक्षा तक सीमित नहीं होना चाहिए; यह मनोरंजक और प्रयोगात्मक होना चाहिए, और इससे बच्चों की जिज्ञासा तथा रचनात्मक रूप से सोचने और आलोचनात्मक रूप से संलग्न होने की उनकी क्षमता विकसित होनी चाहिए। हमारा ध्यान इस बात पर है कि बच्चों के लिए पढ़ाई को कैसे रोचक बनाया जाए।

विज्ञान शिक्षक, सांस्कृतिक कार्यकर्ता और बीजीवीएस नेता उदय गाँवकर ने बताया कि हालाँकि बच्चे अक्सर सामान्य व्यवस्था वाली कक्षा में सवाल पूछने से ख़ुद को रोकते हैं, लेकिन अगर वे खेल के माहौल में होते हैं तो आमतौर पर अधिक खुले होते हैं। खुली बातचीत का यह स्थान उनके बौद्धिक विकास के लिए अहम है। इस प्रकार, विज्ञान आंदोलन का शिक्षाशास्त्र शिक्षण की पारंपरिक कक्षा पद्धति से अलग है जो अक्सर आलोचनात्मक सोच और संवाद के ज़रिये जुड़ाव के बजाय ग़ैर-आलोचनात्मक सिर हिलाने वाली पद्धति के पालन के आधार पर ‘अच्छे छात्रों’ और ‘बुरे छात्रों’ के बीच विभाजन पैदा करती है। उदय गाँवकर ‘करके सीखने’ के इस दृष्टिकोण के उपयोग पर कहते हैं:

चारों कोनों को दो आयु समूहों में बाँटा गया है। उदाहरण के लिए, जब 10-13 वर्ष की आयु के बच्चे किसी पेड़ का अध्ययन करते हैं, तो वे बड़े बच्चों की तुलना में इसका अध्ययन अलग ढंग से करते हैं। एक ही गतिविधियाँ अलग-अलग आयु समूहों द्वारा अलग-अलग तरीक़ों से की जा सकती हैं। बड़े बच्चे कुछ जटिल त्रिकोणमिति सूत्रों का उपयोग करते हैं, जो छोटे बच्चे नहीं कर सकते। लेकिन सभी आयु वर्ग के छात्र इन गतिविधियों का आनंद लेते हैं, जिस तरह शिक्षक भी आनंद लेते हैं। सीखने के सभी कोनों में गतिविधियाँ इस तरह से डिज़ाइन की गई हैं कि किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं है; कोई भी शिक्षक उनकी सहायता कर सकता है। छात्रों को यह बताए बिना कि वे क्या सीख रहे हैं, इस प्रकार की गतिविधियाँ विभिन्न चीज़ें सीखने में मदद करती हैं।

कागधाकट्टारी (शिल्प, या ‘काग़ज़ और कैंची’) कॉर्नर की गतिविधियों में भाग लेते बच्चे

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सीखने के चार कोने

उत्सव स्थल को चार शिक्षण कोनों में व्यवस्थित किया गया है: ‘आइए गाँव के बारे में जानें’ (उरुटिलियोना); विज्ञान, या ‘आओ करके देखें’ (माडुअडु); भाषा विकास, या ‘गायन और वादन’ (हडुअडु); और शिल्प, या ‘काग़ज़ कैंची’ (कागधाकट्टारी)। ये सभी सीखने के कोने बच्चों में जिज्ञासा, अवलोकन और संवाद का कौशल, ग्रुप लर्निंग और वैज्ञानिक सोच विकसित करने के लिए हैं।

1. उरुटिलियोना (‘आइए गाँव के बारे में जानें’)
उरुटिलियोना कोने में, छात्र एक छोटे से गाँव का दौरा करते हैं, जिसके दौरान वे लोगों का साक्षात्कार लेते हैं, उनकी संस्कृति और जैव विविधता के बारे में सीखते हैं, माप कैसे किया जाता है इसका अध्ययन और अभ्यास करते हैं, और अंत में, एक गाँव का नक़्शा तैयार करते हैं। प्रतिभागी चार मुख्य गतिविधियाँ करते हैं:

    1. किसी परिभाषित स्थान की पारिस्थितिकी का अध्ययन करना।
    2. किसी विशिष्ट वस्तु या क्षेत्र, जैसे पेड़, भूमि या आसपास के वातावरण का अध्ययन करना।
    3. किसी भौगोलिक स्थान का मानचित्र बनाना।
    4. ग्रामीणों से साक्षात्कार।

इस पद्धति का उपयोग ग्रामीण जीवन के अन्य पहलुओं का अध्ययन करने के लिए किया जा सकता है; जैसे बिजली का उपयोग कैसे किया जाता है। एक अन्य गतिविधि में, बच्चों ने दस घरों का दौरा किया और बिजली के उपयोग पर बुनियादी जानकारी एकत्र की: घर में कितने लोग रहते हैं, वे अपने घर में कितनी बिजली का उपयोग करते हैं, और वे बिजली के लिए हर महीने कितना भुगतान करते हैं। इससे वे प्रति व्यक्ति बिजली खपत की गणना कर पाए। फिर बच्चों ने अपने अध्ययन के नतीजों को ग्रामीणों के साथ साझा किया।

2023 उत्सव के हिस्से के रूप में की गई एक अन्य गतिविधि ने छात्रों को स्थानीय जैव विविधता के बारे में सिखाया। इस गतिविधि में, और शिक्षकों के साथ अध्ययन में सहयोग करने के लिए एक वृद्ध महिला मुट्ठी भर पत्तियाँ लेकर आई, उस महिला ने इस पेड़ और उसकी प्रकृति के बारे में बताया, उसने यह भी बताया गया कि यह इस क्षेत्र में क्यों उगता है और ग्रामीणों को इससे कैसे लाभ होता है। इसके बाद छात्र पास की एक नारियल तेल फ़ैक्ट्री में गए, जहाँ मालिक ने तेल बनाने की प्रक्रिया, विभिन्न उत्पादों को बनाने के लिए विभिन्न नारियल के उपयोग और मशीनों के काम करने के तरीक़े के बारे में समझाने के लिए एक घंटे तक उत्पादन बंद रखा। बीजीवीएस आयोजकों ने कहा, ‘ये केवल बच्चों का त्योहार नहीं है; ये गाँव का त्योहार है’। बच्चों के साथ इस संक्षिप्त सैर ने इसे पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया, क्योंकि पूरे गाँव ने अलग-अलग तरीक़ों से जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल के साथ संवाद किया।

2. मडुअडु (विज्ञान, या ‘आओ करके देखें’)

इस कोने में बच्चे सीखते हैं कि वैज्ञानिक अवधारणाओं में निहित रोमांचक गतिविधियों के माध्यम से कुछ प्रयोग कैसे निश्चित परिणाम देते हैं। यह सीखने का कोना कहानियों, गीत और नृत्य के उपयोग के कारण बेहद लोकप्रिय है। गतिविधियों में शामिल हैं:

  • न्यूटन-बेन्हम स्नो व्हील, या ग़ायब होने वाली डिस्क। प्रयोग: जब प्राथमिक रंगों को प्रदर्शित करने वाली डिस्क को घुमाया जाता है, तो रंग सफ़ेद दिखाई देता है, जिससे दृश्य को लेकर धारणा के बारे में चर्चा करने में सुविधा होती है।
  • ऐसे खिलौने बनाकर और उनके साथ खेलकर घर्षण का विज्ञान सीखना, जिनकी सामग्री फिसलते समय फिसलने का प्रतिरोध करती है।
  • ध्वनि कैसे प्रसारित होती है यह जानने के लिए पेपर कप और स्ट्रिंग का उपयोग करके कॉन्फ़ेंस कॉल की नक़ल करना।

3. हडुअडु (भाषा विकास, या ‘गायन और वादन’)

यह कोना भाषा विकास, आलोचनात्मक सोच और सामूहिक गतिविधियों पर केंद्रित है। इस कोने की गतिविधियाँ खेल, गीत, प्रदर्शन और बातचीत के माध्यम से असंख्य अभिव्यक्तियाँ सामने लाती हैं और बच्चों को न केवल शब्दों के माध्यम से, बल्कि अभिव्यक्ति के अन्य रूपों के माध्यम से भी दुनिया के बारे में जानने समझने में मदद करती हैं। इस कोने के प्रभारी शिक्षक अशोक थेक्कटे ने समझाया:

हडुअडु भाषा विकास के लिए एक क्षेत्र है, और, गायन, नृत्य तथा कुछ अन्य गतिविधियों के माध्यम से हम बच्चों को समूहों में काम करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। एक गतिविधि ऐसी है जहाँ हम बच्चों को दो तुकबंदी वाले शब्द देते हैं और उनसे अन्य दो तुकबंदी वाले शब्द ढूँढने के लिए कहते हैं, और फिर वे स्वयं कविताएँ बनाते हैं। यह अभ्यास भाषा पर पकड़ बनाने में उनकी मदद करता है।

4. कागधाकट्टारी (शिल्प, या ‘काग़ज़ और कैंची’)

यह कोना बच्चों को विभिन्न सामग्रियों के साथ प्रयोग करने और रचनात्मक बनने के लिए जगह प्रदान करता है। शिक्षक कहानियाँ सुनाते हैं जिन्हें चित्रित करने के लिए बच्चे प्रेरित होते हैं। यह गतिविधि अन्य कोनों की तुलना में कम बँधी और अधिक खुली है, जिसकी वजह से बच्चे अपनी गतिविधि का नेतृत्व स्वयं करते हैं और काग़ज़, कैंची या क़लम का उपयोग करने के लिए उनके पास पूरा मौक़ा होता है जिससे वे विभिन्न प्रकार की आकृति, गुड़िया और चित्र बनाते हैं। ओरिगामी और पेपर क्राफ़्ट जैसी गतिविधियों के माध्यम से, बच्चे सूक्ष्मता, साफ़- सफ़ाई और एकाग्रता सीखते हैं।

उरुटिलियोना (‘आइए गाँव के बारे में जानें’) कॉर्नर के अंतर्गत गाँव का दौरा कर बच्चों ने गाँव का नक़्शा बनाकर प्रस्तुत किया

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बाधाओं को तोड़ना

जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल और पड़ोस के स्कूलों को समान रूप से ग्रामीण समाज के प्रतिगामी पहलुओं, विशेषकर जाति पदानुक्रम का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, एक नेबरहुड स्कूल में – जिसमें प्रभावशाली जाति और दलित जाति के बच्चे समान रूप से महामारी के दौरान पढ़ते थे – प्रभावशाली जाति के परिवारों ने दलित बच्चों को स्कूल के पास स्थित गाँव के मंदिर में जाने की अनुमति देने पर आपत्ति जताई। चर्चा के बाद, शिक्षकों ने स्कूल को गाँव के दलित हिस्से में स्थानांतरित करने का निर्णय लिया, जिससे कुछ प्रभावशाली जाति के परिवार नाराज़ हो गए, जिन्होंने शिक्षकों से स्कूल को वापस मंदिर के पास स्थानांतरित करने के लिए कहा। शिक्षकों ने कहा कि वे ऐसा तभी करेंगे जब प्रभावशाली जाति के माता-पिता इस बात पर सहमत होंगे कि दलित बच्चे बिना किसी समस्या के मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं, जिस पर प्रभावशाली जाति के परिवार सहमत हो गए। जैसा कि इस घटना से पता चलता है कि शिक्षक अक्सर सामाजिक बाधाओं और पूर्वाग्रहों को तोड़ने के लिए सूक्ष्म तरीक़ों का प्रयोग करके प्रतिगामी सामाजिक संरचनाओं को तोड़ने में सक्षम होते हैं।

जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल के हिस्से के रूप में गहरे भेदभाव को तोड़ने के लिए एक और दृष्टिकोण अपनाया जाता है जिसे मेहमान-मेज़बान विधि कहा जाता है। जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल की अवधि के लिए एक ज़िले के बच्चों को दूसरे ज़िले के बच्चों के घरों में रखा जाता है, जो अक्सर विभिन्न सामाजिक-आर्थिक और जातिगत पृष्ठभूमि से होते हैं। उदाहरण के लिए, सिद्दापुरा उत्सव के दौरान स्थानीय प्राथमिक विद्यालय के 150 छात्रों और उनके परिवारों ने मेले के तीन दिनों के दौरान कर्नाटक के अन्य हिस्सों से आए 150 बच्चों को अपने घरों में ठहराया और उनके साथ मिलकर काम किया। बच्चों का प्रत्येक जोड़ा एक साथ रहता था, एक साथ खाना खाता था और अपने बीच के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भाषाई और अन्य मतभेदों को दूर करते हुए एक साथ गतिविधियों में भाग लेता था।

गाँवकर ने हमें इस प्रक्रिया को समझने में मदद की, जो लंबे समय के संघर्ष से बनी है:

हमारे त्योहारों का समाज पर कितना प्रभाव है इसका सही-सही आकलन करना और कहना कठिन है। लेकिन हमारे पास निश्चित रूप से असाधारण अनुभव हैं। श्री रंगपट्टण में एक उत्सव में, मैंगलोर का मोहम्मद हाफ़िल नामक एक छात्र दो रातों के लिए एक अन्य छात्र, पुनीत के साथ रुका। हाफ़िल एक संपन्न परिवार से था, जबकि पुनीत निम्न आय वाले परिवार से था। पुनीत के घर में स्वाभाविक रूप से संसाधन का अभाव था, जिनमें शौचालय की सुविधा की कमी भी शामिल थी, और यहाँ तक कि प्रत्येक छात्र द्वारा खाया जाने वाला भोजन भी अलग-अलग था। बहरहाल, वे बहुत जल्द दोस्त बन गए। पुनीत के घर से निकलने से पहले हाफ़िल पुनीत की दादी से मिलना चाहता था, जो सुबह ही काम पर निकल चुकी थीं। इसलिए, उसने शिक्षा विभाग के अधिकारियों से उस जगह ले जाने को कहा जहाँ पुनीत की दादी काम करती है। दादी से मिलने के बाद अधिकारियों ने उनसे पूछा कि क्या हाफ़िल को अपने घर में स्वीकार करना मुश्किल था क्योंकि वह दूसरे धर्म से था। पुनीत की दादी ने इस सवाल को सीधे तौर पर ख़ारिज कर दिया।

हालाँकि हर मामले में ऐसी उदारता दिखे, यह ज़रूरी नहीं है। माता-पिता की बैठकों में चर्चाएँ होती हैं जहाँ माता-पिता अन्य पृष्ठभूमि के बच्चों की मेज़बानी करने में अपनी अनिच्छा व्यक्त करते हैं। ये चर्चाएँ महत्त्वपूर्ण हैं, विशेष रूप से इसलिए क्योंकि बीजीवीएस कार्यकर्ता समाज में स्पष्ट पदानुक्रमों की इन सार्वजनिक उपस्थिति को चुपचाप सहन नहीं करते बल्कि इस पर बात करते हैं और बात करन के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

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आयोजक के रूप में शिक्षक

शिक्षक निस्संदेह जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल का आधार हैं। उत्सव कहाँ होगा इसका निर्णय वही लेते हैं, स्थानीय सरकार के साथ इसके लिए समन्वय करते हैं, सीखने के कोने विकसित करते हैं, और गाँव को उत्सव में शामिल करते हैं। जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल का अनुभव करने वाले शिक्षक और अधिक शिक्षकों को सिखाते हैं, बीजीवीएस का निर्माण करते हैं और बड़े पैमाने पर गाँवों तथा भारतीय समाज में जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल को शामिल करते हैं।

बीजीवीएस शिक्षक त्योहार के पहले दिन तेज़ गर्मी और उमस में काम करते हुए लगभग पंद्रह से सोलह घंटे बिताते हैं। शाम को, जब छात्र चले जाते हैं, तो शिक्षक अपने काम का मूल्यांकन करने के लिए मिलते हैं और त्योहारों को बेहतर बनाने के बारे में चर्चा करते हैं। इस तरह की चर्चाओं से शिक्षकों की कार्यनीति और एक समान कक्षा बनाने और सबसे हाशिये पर मौजूद छात्रों तक पहुँचने के उनके निरंतर प्रयास का पता चलता है। समर्पण का यह कार्य जीवंत प्रशिक्षण प्रक्रिया, माता-पिता और गाँव के नेतृत्व को शामिल करने के महत्त्वपूर्ण कार्य और फिर छात्रों को अपनी शिक्षा का आनंद लेते हुए देखकर संतुष्टि की ज़बरदस्त भावना का परिणाम है।

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निष्कर्ष

जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल्स पीपुल्स साइंस मूवमेंट के दर्शन को अभिव्यक्त करते हैं। इस परंपरा में विज्ञान और ज्ञान केवल अकादमिक नहीं हैं। व्यक्तिगत उन्नति पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, वे ऐसे रचनात्मक सामाजिक प्रयास का हिस्सा हैं जो मानता है कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे छात्रों में दुनिया के बारे में गंभीर सोच और आलोचनात्मक नज़रिया विकसित हो सके। पूरे ग्रामीण समुदाय को शामिल करके और छात्रों को विज्ञान के अभ्यास में लगाकर (उनके कृषि उत्पादन और उनकी आर्थिक वास्तविकताओं के अध्ययन सहित), त्योहार समुदाय में विज्ञान को एक व्यापक सांस्कृतिक प्रक्रिया के हिस्से के रूप में स्थापित करते हैं। इससे सीधे तौर पर ग्रामीणों और छात्रों को अपने परिवेश तथा भौतिक स्थितियों को जानने-समझने का अवसर मिलता है, उनमें अपने सामाजिक कार्यों और टिप्पणियों के आधार पर समझ विकसित होती है।

भारत में हाथ से किए जाने वाले काम का लंबे समय से अवमूल्यन किया गया है और इसे सिद्धांत तथा ज्ञान से अलग रखा गया है, जिसका मुख्य कारण जाति व्यवस्था है। 1991 में शुरू हुए नवउदारवाद के हमले से यह और बढ़ गया है। इससे एक ऐसा वातावरण बनता है जिससे विज्ञान शिक्षा में अभ्यास, अवलोकन और प्रयोग की बहुत कम भूमिका होती है। वे व्यवसाय और समुदाय जो हाथ से काम करने से जुड़े हैं वे भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित हैं। जो लोग ज़मीनी काम करते हैं उन्हें सिद्धांत से दूर रखा जाता है और जो लोग सिद्धांत सीखते हैं वे ज़मीनी काम से दूर रहते हैं, यह एक ऐसा विभाजन है जो वैज्ञानिक प्रगति या वैज्ञानिक स्वभाव के विकास के लिए अनुकूल नहीं है।

नवउदारवाद के तहत जिस तरह से विज्ञान और प्रौद्योगिकी को अमल में लाया जाता है वह भारत के दक्षिणपंथ द्वारा प्रचारित अवैज्ञानिक सामाजिक दृष्टिकोण और विचारधारा के साथ-साथ चलता है। बच्चों में वैज्ञानिक सोच विकसित करने के लिए विज्ञान को व्यावहारिक, विकेन्द्रीकृत, प्रयोगात्मक, अवलोकनात्मक और पूछताछ-आधारित तरीक़े से पढ़ाना और उसे व्यवहार में लाना महत्त्वपूर्ण है। पीपुल्स साइंस मूवमेंट की विज्ञान की अवधारणा का अर्थ केवल प्राकृतिक घटनाओं की जाँच करना नहीं है, बल्कि उन सामाजिक संबंधों को समझना और उनका विश्लेषण करना भी है जिनसे वे निर्मित होती हैं।

इस समझ के आधार पर, पीपुल्स साइंस मूवमेंट ने अपने जॉय ऑफ़ लर्निंग फ़ेस्टिवल्स के माध्यम से विज्ञान शिक्षा के लिए एक आसानी से दोहराया जाने योग्य मॉडल बनाया है। हालाँकि नवउदारवादी राज्य इन मॉडलों को अपनाने के लिए – कुछ हद तक – मजबूर है, लेकिन जब दक्षिणपंथ सत्ता में हो तो इन्हें बड़े पैमाने पर लागू नहीं किया जा सकता है।

पीपुल्स साइंस मूवमेंट की विशिष्टता यह है कि यह पूँजीवाद की विफलताओं के कारण उपलब्ध दायरों में काम करता है, जो इसे अन्य वर्ग-आधारित संगठनों से अलग करता है। यह पूरी ताक़त से पूँजी का सामना करता हैं। पीपुल्स साइंस मूवमेंट का दृष्टिकोण समाजवादी परियोजना को नवउदारवाद के सांस्कृतिक आधिपत्य और दक्षिणपंथ की सामाजिक विषाक्तता से लड़ने, वैज्ञानिक, तर्कसंगत और मानवीय चेतना के लिए नये क्षेत्र बनाने का अवसर देता है।


मडुअडु (विज्ञान, या ‘आओ करके देखें’) कॉर्नर की गतिविधि में अपने द्वारा बनाई गई तितली का प्रदर्शन करते बच्चे

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Notes

1 Navinchandra R. Shah, ‘Literacy Rate in India’, International Journal of Research in All Subjects in Multi Languages 1, no. 7 (October 2013): 12–16, https://www.raijmr.com/ijrsml/wp-content/uploads/2017/11/IJRSML_2013_vol01_issue_07_04.pdf.

2 T. M. Thomas Isaac and B. Ekbal, Science for Social Revolution. The Experience of Kerala Sastra Sahitya Parishat (Trichur: KSSP, 1988); M. P. Parameswaran, ed., Science for Social Revolution (Thrissur: KSSP, 2013).

3 Amit Sengupta, ‘Learning from the Past and Looking to the Future’, in Science for Social Revolution, 68. Also see, Prabir Purkayastha, Indranil, and Richa Chintan, ed., Political Journeys in Health. Essays by and for Amit Sengupta (New Delhi: LeftWord Books, 2021) and Prabir Purkayastha, Knowledge as Commons. Towards Inclusive Science and Technology (New Delhi: LeftWord Books, 2023).

4 The Constitution of India, Ministry of Law and Justice, Government of India, 26 January 1950, https://www.refworld.org/docid/3ae6b5e20.html, 25.

5 National Sample Survey of Estimation of Out-of-School Children in the Age of 6–13 in India, Social and Rural Research Institute, September 2014, https://www.education.gov.in/sites/upload_files/mhrd/files/upload_document/National-Survey-Estimation-School-Children-Draft-Report.pdf.

6 शिक्षा में नवउदारवादी नीतियों के प्रभाव के बारे में जांने के लिए पढ़ें: Nitheesh Narayanan and Dipsita Dhar, eds., Education or Exclusion? The Plight of Indian Students (New Delhi: LeftWord Books, 2022) and Satarupa Chakraborty and Pindiga Ambedkar, eds., Students Won’t Be Quiet (New Delhi: LeftWord Books, 2022).

7 सार्वजनिक धन से निजी स्कूलों का अप्रत्यक्ष वित्त पोषण किया जा रहा है। उदाहरण के लिए हरियाणा सरकार की चीराग योजना सहायता राशि दे कर अभिभावकों को अपने बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ाने के लिए प्रेरित कर रही हैं। जबकि कुछ सरकारी स्कूलों में फ़ीस लेना शुरू कर दिया गया है। इसके बारे में अधिक जानकारी के लिए पढ़ें: Satyapal Siwach, ‘Haryana Teachers Protest Against CHEERAG’, Peoples Democracy, 7 August 2022, https://peoplesdemocracy.in/2022/0807_pd/haryana-teachers-protest-against-cheerag.